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व्यंग्य के विषय में मैं धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि व्यंग्य एक 'शैली' भी हो सकती है, व्यंग्य एक 'विधा' भी हो सकती है, इस पर विभिन्न मत व तर्क भी हो सकते हैं, किंतु व्यंग्य एक 'विचार' है, एक 'विचारधारा' है व एक 'दृष्टिकोण है', इस पर विभिन्न मतों व तर्कों की कोई संभावना नहीं है।
विचार-विचारधारा-दृष्टिकोण, व्यक्ति को रुचि-अरुचि, उसकी स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता, उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति, भाव व स्वभाव से समय के साथ उसके अनुभव व चिंतन-मनन से न केवल जन्म लेती है, अपितु परिष्कृत भी होती है।
विद्वानों ने 'हास' को एक प्रीति परक भाव माना है। उनका मानना है कि यह चित्त की गंभीरता, जो पूर्व से संचित है, में आकस्मिक विस्फोट कर उसे कुछ क्षणों के लिए सात्विक प्रसन्नता से भर देता है। उनका यह भी मानना है कि यह भाव भी अन्य भावों की तरह चित्त में पहले से ही सोया पड़ा रहता है, शांत व अक्रिय होता है, किंतु अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होते ही सक्रिय हो उठता है।
डॉ. हरिराम आचार्य कहते हैं कि-
स्थायी भावो हासः पुष्टोहसितैः संचारिभावैश्च ।
विकृति, विभावसमुत्थः स्वाद्यतेस तन्मयैःरसिकैः ।।
अर्थात्, विकृति रूपी विभाव से उत्पन्न होने वाला 'हास' नामक स्थायी भाव 'हसित' नामक अनुभावों व संचारी भावों से पोषित होकर तन्मय रसिकों के द्वारा आनंद का विषय (हास्य रस) बनता है।
प्रश्नः 'व्यंग्यकार' होने के क्या अर्थ हैं?
उत्तरः वही अर्थ जो कॉलोनी में एक 'सफाईकर्मी' व शहर में 'म्यूनिसिपलिटी' केहोने से है। शहर में 'सफाईकर्मी' का महत्त्व किसी 'मजिस्ट्रेट' से कम नहीं होता।इसी के चलते आज साहित्य में व्यंग्यकार के पास वो पावर है, जो इण्डियनपैनल कोड में पुलिस के पास है। शहर में पुलिस व समाज में व्यंग्यकार दोनोंअपने ढंग से 'लॉ एण्ड ऑर्डर' मेंटेन करते हैं।
प्रश्नः क्या व्यंग्य से हास्य को दूर रखा जा सकता है?
उत्तरः क्या आप शिव से शक्ति को अलग कर सकते हैं? क्या आप प्रकृति से पुरुष को अलग करसकते हैं और क्या आप आत्मा को शरीर को दूर या अलग कर सकते हैं? यदि नहीं, तो व्यंग्य कोहास्य से कभी दूर नहीं कर सकते। व्यंग्य अगर 'शिव' है तो हास्य उसकी 'शक्ति' है।