वर्तमान में समाज अपने ही द्वारा स्थापित मूल्यों, मर्यादाओं, रूढ़ियों एवं आ़डम्बरों से लड़ रहा है। हर तरफ पाखण्डी सुधारवादियों, छद्म वेषी राजनीतिज्ञों, पाश्चात्य सभ्यता के पक्षधरों ने अपना जाल फैला रखा है। संजय झाला समाज की इन विसंगतियों को रेखांकित करते हुए पाठक को हंसाते, गुदगुदाते उस धारा की ओर ले जाते हैं, जिसमें उत्ताल तरंगों की तीखी भयावहता के साथ जीवन के प्रश्नों से जूझने का सामर्थ्य भी है। अपने समय, समाज और दुनिया को समझने के लिए उनके व्यंग्य एक दस्तावेज हैं।- डायमंड बुक्स