- उनका हास्य मन को गुदगुदाता है, व्यंग्य मन पर गहरी चोट करता है- इंडिया टुडे, नवम्बर 2008
- संजय परसाई व जोशी जी की चमक में ही अपनी कलम चलाते हैं- अहा! ज़िदंगी, अप्रैल 2008
- संजय का लेखन उनकी उम्र से दो दर्जन अधिक- आकाशवाणी, दिल्ली
- वे हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत की विभक्तियों और क्रिया-पदों का मिश्रण करके अभिव्यक्ति को रोचक बना देते हैं- राजस्थान पत्रिका, जुलाई 2008
- संजय का लेखन स्वतःस्फूर्त एवं अनायास- राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, इलाहाबाद, पटना
- संजय शास्त्रीय भाषा एवं बिम्बों से असरदार प्रहार करते हैं- मधुमती, मार्च 2006
- उनके व्यंग्य एक दस्तावेज हैं- डायमंड बुक्स
देश के मंचीय और टीवी पर प्रकट होने वाले कवियों में राजस्थान के झाला एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने गद्य-पद्य दोनों में रचनाएँ लिखी हैं। उनका हास्य मन को गुदगुदाता है, वहीं व्यंग्य दिलो-दिमाग पर गहरी चोट करता है। समय, समाज, देश-दुनिया को साथ लेकर चलते हुए झाला ने वर्तमान युग की त्रासदी और समाज के विद्रूप चेहरे को पाठक के सामने सीधे-सीधे परोसा है। संजय शब्दों का चयन इस कुशलता से और संक्षिप्तता से करते हैं कि पाठक घिरकर रह जाता है। उनके व्यंग्य न हंसने देते हैं, न रोने देते हैं। व्यंग्य में तीखापन तिलमिला कर छोड़ता है। सच्चाई के धरातल पर खड़े रहना संभव है, लेकिन पोली जमीन पर आदर्शों के पेड़ या सपनों के महल खड़े नहीं हो सकते। अपने व्यंग्य में संजय यही रेखांकित करते हैं...
सही मायनों में देखा जाए तो साहित्य का सबसे ज्यादा शक्तिशाली माध्यम व्यंग्य विधा ही है। इस विधा के साहित्यकारों ने हमेशा अपनी बात कही है और बेबाक कही है। कोई डर इस विधा को नहीं डरा सका। साथ ही इस विधा की लोकप्रियता ने साहित्य को नया जीवन दिया है। लेकिन हिन्दी के तथाकथित आलोचकों ने इस विधा को सम्मान देने से साफ मना कर दिया और व्यंग्यकार सिर्फ मुस्कराकर रह गए। समय के साथ आलोचकों के कलम की स्याही खत्म हो गई और व्यंग्य ने हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे रत्नों को चमकाया। संजय झाला ने इन्हीं की चमक में अपनी कलम चलाई है। उन्होंने व्यंग्य में सदैव नए प्रयोग किए हैं और वे गुदगुदाने में कामयाब भी होते हैं। इनकी शब्दकारी रोचक है। कटाक्ष इस विधा का ब्रह्मास्त्र है और इसका भरपूर उपयोग किया है संजय ने। संजय मिट्टी से जुड़े आदमी हैं और उनकी रचनाओं से घर की खुशबू आती है।
संजय झाला व्यंग्य की दुनिया में अच्छा खासा रुतबा हासिल कर चुके हैं। वो एक हाथ में कड़ा, दोनों बाजुओं के खुले टिच बटन, कानों को उलांघ गर्दन पर आने को आतुर परन्तु सलीके से कंघी किए बाल और राजस्थान के तत्कालीन छोटे से कस्बे दौसा की गलियों में भटकता, मटकता या कहें कि लटकता संजय एक दिन व्यंग्य की दुनिया में इतना बड़ा नाम कमा जाएगा, ये किसी ने सोचा भी नहीं था। अपनी तीसरी कृति के रूप में 'तू डाल-डाल, मै पात-पात' एक प्रयोगवादी कृति है, इसमें कुल 62 रचनाएँ हैं, जिन्हें पढकर लगता है कि संजय 62 साल का हो चुका है, अपनी उम्र से दो दर्जन अधिक। रचनाएँ इतनी गहरी एवं परिपक्व हैं कि व्यंग्य के कद्रदानों, विद्वानों और संस्थानों को बहुत से सबक दे गई।
संजय झाला भावबोध और भाषा के स्तर से पहचाने जाने वाले व्यंग्यकार हैं। परिवेश की विसंगतियों पर इनकी पैनी पकड़ है। इनके व्यंग्य लेखन का प्रभावशाली पक्ष यह है कि वे हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत की विभक्तियों और क्रिया-पदों का मिश्रण करके अभिव्यक्ति को रोचक बना देते हैं। उन्होंने निबंध, इंटरव्यू, काव्य, कथा सहित अनेक शैलियों का प्रयोग किया है। उनके लघु टिप्पणीपरक व्यंग्य उनकी प्रतिभा और व्यंग्य चेतना का मुखर प्रतिनिधित्व करते हैं।
व्यंग्य विधा के पंच महाभूत माने गए हैं, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और के.पी. सक्सेना। इनके लेखन में पंचतत्त्वों को परिभाषित किया जाए तो परसाईजी में 'वैचारिक प्रतिबद्धता', शरद जोशी में 'शैली के नए अवयवों का प्रयोग', त्यागीजी में 'अध्ययन की उद्धरणी', श्रीलाल शुक्ल में 'कहन की कारीगरी' और के.पी. सक्सेना के लेखन में 'भाषिक चटखारे' हैं।
समर्थ व्यंग्यकार संजय झाला ने अलग-अलग पड़े इन पंच व्यंग्य तत्त्वों को एकीकृत कर इन्हें सार्थक और सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। दशकों बाद सम्पूर्ण चेतना, समग्रता और आत्म विश्वास के साथ व्यंग्य के बंद कपाटों को संजय झाला ने पूरी ताकत के साथ खटखटाया है।
जहाँ इनका लेखन स्वतःस्फूर्त एवं अनायास है, वहीं उसकी अन्य विशेषताएँ भी हैं। संजय झाला अपने व्यंग्य लेखों में अव्यवस्थाओं को हास्य के माध्यम से दण्डित करते हैं। इनके लेखन में हास्य अपने विशद् आनन्द से हटकर प्रयोजननिष्ठ होता हुआ व्यंग्य का मार्ग पकड़ता है। यही व्यंग्य की सिद्धता और सार्थकता है। संजय झाला के पास विराट व्यंग्य-दृष्टि है। व्यापक दृष्टिकोण है। उनके लेखन में विद्रूपताओं और विसंगतियों पर आँखों से आंसू बह जाने वाली ताज़गी, शुद्धता, स्वच्छता और स्निग्धता है।
संजय झाला हिन्दी कवि सम्मेलनों के प्रखर हस्ताक्षर हैं और मंचों पर प्रस्तुतिगत प्रयोगों के कारण चर्चित भी। संजय शास्त्रीय भाषा और बिम्बों के साथ विसंगतियों पर असरदार प्रहार करते हैं। संजय झाला के व्यंग्य अपनी समग्रता में विद्रूपताओं को रेखांकित करते हैं और जीवन में शुचिता के प्रति आस्था के महत्त्व की ओर संकेत करते हैं। झाला का व्यंग्यकार अपनी अंजुरि में जीवन की समग्रता को समेटना चाहता है। झाला के व्यंग्यों में जब 'हास' के प्रति अकुलाहट नज़र आती है तो याद आता है कि ऋग्वेद के एक मंत्र में प्रयुक्त 'हस्' शब्द का अर्थ यायणाचार्य ने दीप्ति अथवा जीवन ऊर्जा के अर्थ में किया है।
वर्तमान में समाज अपने ही द्वारा स्थापित मूल्यों, मर्यादाओं, रूढ़ियों एवं आ़डम्बरों से लड़ रहा है। हर तरफ पाखण्डी सुधारवादियों, छद्म वेषी राजनीतिज्ञों, पाश्चात्य सभ्यता के पक्षधरों ने अपना जाल फैला रखा है। संजय झाला समाज की इन विसंगतियों को रेखांकित करते हुए पाठक को हंसाते, गुदगुदाते उस धारा की ओर ले जाते हैं, जिसमें उत्ताल तरंगों की तीखी भयावहता के साथ जीवन के प्रश्नों से जूझने का सामर्थ्य भी है। अपने समय, समाज और दुनिया को समझने के लिए उनके व्यंग्य एक दस्तावेज हैं।